Menu
blogid : 5503 postid : 621241

“रावण” ने मरने से ही इनकार कर दिया !

social issu
social issu
  • 30 Posts
  • 669 Comments

मेरे शहर की रामलीला आसपास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। बात काफी पुरानी हैै। उस साल मैं रामलीला कमेटी में ”प्रेस सचिव” था। रामलीला के मन्चन की सारी कवरेज मैं ही विभिन्न समाचार पत्रों में भेजता था। रामलीला समापन के मुख्य अतिथि रहे दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व0 साहिब सिंह वर्मा द्वारा मेरी ‘कम उम्र’ व ‘प्रेस कवरेज’ को प्रशंसित व पुरस्कृत भी किया गया था।
उस साल की रामलीला की दो विशेषताऐं थी-पहली मथुरा की रामलीला मंडली, दूसरी रामलीला समिति के अध्यक्षस्व0 दीपक योगी जी। जो एक व्यावसायिक होने के साथ-साथ आध्यात्मिक   व्यक्ति भी थे, जितने दिनों तक रामलीला चली थी उन्होने ‘भगवा’ कपड़े ही पहने थे।
स्व0 योगी जी ”भारतीय कुण्डली जागरण एवं हिप्नोटिज्म” नामक संस्था के अध्यक्ष थे। क्योकि मैं हठयोग का त्राटक साधक था, ”हिप्नोटिज्म या सम्मोहन” त्राटक साधना की ही एक विधा है। उसी में कुछ जिज्ञासाओं के कारण मेरी उनसे मुलाकात हुर्इ थी। उनसे बातचीत के आधार पर मैंने ”सम्मोहन विज्ञान” पर एक लेख लिखा था जो एक मैंगजीन में प्रकाशित व पुरस्कृत हुआ था। उनका दावा था कि वे शक्तिपात द्वारा किसी की भी कुंडली जाग्रत कर सकते हैं। अनेक साधक उनके पास आते भी थे।
उस रामलीला मण्डली का सबसे अनोखा पात्र ”रावण” था। जो उस मण्डली का ‘मालिक’ भी था। साढे़ 6.5 फुट की ऊंचार्इ व मजबूत शरीर वाले रावण को काफी पुरस्कार भी मिल चुके थे, ऐसा उनका दावा था।
उस मण्डली का सबसे बुरा व्यसन ”भांग” था। मंचन से पहले वे भांग की गोलियां खाते, और उसी की मस्ती में मंचन करते थे। रावण जी ‘भांग’ तो खाते ही थे, साथ ही ‘पेटू’ भी बहुत थे। लीला मंचन के समय भी, एक व्यक्ति कभी मूंगफली, कभी बर्फी, कभी मुरब्बे के पीस पालिथिन के बैग में लेकर उस के साथ-साथ चलता रहता था। रावण जी खाते रहते थे और संवाद बोलते रहते थे। दर्शक दीर्घा स्टेज से 20-25 मीटर दूर थी, अत: दर्शकों को उसके खाते रहने का अहसास नहीं होता था। मैं चूंकि स्टेज पर ही ”व्यास जी” के पास बैठता था, अत: सब दिखार्इ व सुनार्इ देता रहता था।
दशहरे वाले दिन शायद ”रावण जी” ने भांग की कुछ ज्यादा ही ‘डोज’ ले रखी थी, क्योंकि वे बिना रूके “राम जी” से युद्ध किये जा रहे थे और थकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। “राम जी” थक कर मन्च पर बैठ जाते थेे। आयोजक बीच-बीच में एक मण्डली के ही ‘नचनिए’ को मंच पर नाचने के लिए बुला लेते थे। क्योंकि ‘सामयिक फिल्मी गानों’ पर नृत्य, थके और नींद में झूलते दर्शकों को, बांधे रखता था और वे ताली बजाने, झूमने, नाचने को मजबूर हो जाते थे।
रात के 2 बज चुके थे, सभी ऊंघने लगे थे। शहरी भीड़ जा चुकी थी। देहाती भीड़ रावण आदि के पुतलों की तरफ बार-बार बढ़ रही थी, जिसे संभालना पुलिस व आयोजकों के लिए मुशिकल हो रहा था। क्योंकि देहात के दर्शकों में यहां एक परम्परा है कि वे रावण आदि के पुतलों के दहन के बाद बचे हुए बांस व खरपचिचयों को अपने घर ले जाते हैं, और उन्हें सम्भाल कर अपने घरों में रखते हैं, उनका मानना है कि इससें बुरी शक्तियाँ घर से दूर रहती हैं।

रावण मंच पर घूम रहा था, और जोर-जोर से हंस रहा था, एक बारगी तो मुझे लगा कि कही ”वास्तविक रावण” की आत्मा तो इसमे प्रवेश नहीं कर गयी है। राम जी स्टेज पर एक तरफ, पसीनों में लथपथ व थके-टूटे से बैठे थे।
तभी स्टेज पर एक ‘बुजुर्ग’ आये जो रामलीला समिति के ”संरक्षक” भी थे, उन्होंने रावण से कहा! महाराज! अब जल्दी मरो, समय काफी हो गया है। रावण ने उनकी बात को अनसुना कर दिया, और मंच पर ही घूूमता रहा।
बुजुर्गवार ने अपने शब्द कुछ जोर से, रावण को डांटते हुए से, दोहराये!
रावण फौरन तैश में आ गया, बोला-मैं नहीं मरूंगा! पहले तुझे मारूंगा! और अपनी तलवार लेकर तेजी से उनकी तरफ बढ़ा।
वे बेचारे डर कर स्टेज से नीचे भाग गये। व्यास जी और मैं भी खड़े हो गये। मैंने व्यास जी से कहा-क्या रावण जी पगला गये हैं? जो इस तरह से बर्ताव कर रहें हैं? क्या इनका सारा ”पैमेण्ट” हो गया हैं?
व्यास जी कुछ नहीं बोले!


”योगी जी” को बुलाया गया, तब भी रावण नहीं माना! फिर चार-पांच हटठे-कटटे व्यकितयों को बुलाकर रावण को काबू किया गया और  उसे मंच से नीचे ले गये। । तब जाकर रावण आदि के पुतलों का दहन किया गया। पाठकजनों! क्या आपने भी कोर्इ ऐसी रामलीला देखी है, अवश्य शेयर करें!

अंन्त में एक ”मुक्तक’‘ के साथ अपना ‘ब्लॉग’ समाप्त करता हूं-
प्रेम सहज है दशरथ सा  विश्वासी,
किन्तु  दुनिया  है   मन्थरादासी,
परन्तु ऐश्वर्य की इस अयोध्या में,
मेरा  मन है ‘भरत’ सा सन्यासी।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh