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‘योग’ जब तक ‘योग’ रहा, हम भारतीयों ने उसके महत्व को नहीं समझा। लेकिन जैसे ही यह विदेशी कन्धों पर चढ़कर ‘योगा’ बनकर भारत में आया। हमने उसका खुलेदिल से स्वागत किया। क्योकि हमें अपने प्राचीन ऋषि-मुनियों के शोध से ज्यादा विदेशी शोध पर विश्वास है। योगगुरू बाबा रामदेव ने योग का ‘वैश्वीकरण’ कर उसे विश्व भर में फैलाया, परन्तु साथ ही उसका ‘व्यवसायीकरण’ भी कर दिया। इसे मैं गलत नहीं मानता क्योकि हम भारतीयों को फ्री का ज्ञान समझ नहीं आता, केवल वो ही ज्ञान समझ आता है जिसमें गांठ से पैसा खर्च हो। क्योंकि अनेक प्रसिद्ध योग संस्थाएं जो विभिन्न शहरों में नि:शुल्क योग शिविर लगाकर पचासों सालों में वो कार्य नहीं कर पायी, जो बाबा रामदेव ने कुछ ही वर्षो में स:शुल्क योग शिविर लगाकर कर दिखाया।
बात लगभग 1990 की है मैं अपने शहर के निकट एक गुरूकुल में योग की शिक्षा योगाचार्य पूज्य प्रेमपाल जी आर्य के दिशा निर्देंशन में ले रहा था। योग के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण वास्तव में सराहनीय है। मेरे पूज्य गुरू आचार्यवर धीरेन्द्र ब्रहमचारी के शिष्य हैं, और उनके ही विश्वायतन योग संस्थान दिल्ली से योगाचार्य की डिग्रीधारी हैं।
मैं प्रारम्भ में उनके पास केवल ‘साइनस’ (नाक का एक रोग) के कारण सूत्रनेति सीखने गया था, परन्तु योग में मेरी रूचि देखकर गुरू जी ने मुझे हठयोग के षटसाधन-धोति को छोड़कर-बस्ती- नेति-त्राटक-न्योलि-कपालभाति सीखाना प्रारम्भ कर दिया, क्योकि योगासन का मैं पहले से ही अभ्यासी था, कॉलेज में ‘पॉल्वाल्ट’ और ‘हाईजंप’ का अच्छा खिलाड़ी था अत: ‘फिजिकली’ योग की गूढ़ क्रियाओ का सीखने में मुझे ज्यादा परेशानी नहीं हुई । योग के बारे में उनका ज्ञान गजब का था। वे किसी भी योगासन के बारे में धाराप्रवाह बोल सकते थे। योग का प्रचार-प्रसार वे नि:शुल्क करते थे, यदि मैं उन्हे कुछ देता भी, तो वे उसे लेकर गुरूकुल के चन्दे की रसीद काट देते थे, अपने पास कुछ नहीं रखते थे।
हठयोग के सभी साधनों का अभ्यास चल रहा था जिसमें केवल ‘धोति’ क्रिया सीखना रह गया था, जिसे गुरू जी ने अपने सामने ही कराने की बात कह देते थे। परन्तु मैं जल्द से जल्द इसे सीखना चाहता था। ”पढ़ने में साधारण सी क्रिया ”धोति” जिसमें 4 अंगुल चौड़ा और 2-3 हाथ लम्बा कपड़ा चाहिए, हल्के गुनगुने पानी से उसे निगल ले, फिर बाहर निकाल दें।” ये बात अन्य योगासनों पर भी लागू होती है, पढ़ने में जितने सरल लगते हैं, परन्तु बिना किसी निर्देशन के करने से लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना ज्यादा होती है।
मैं उस प्रात: गुरूकुल जल्दी पहुंच गया था। गुरूजी दैनिक क्रियाओ में लगे थे, मैं अपने साथ मखमल का टुकड़ा ‘धौति’ लेकर गया था। अन्य योगासनों के अभ्यास से निवृत्त हो चुकने के बाद मैंने ‘धौति क्रिया’, बिना गुरू की अनुमति के स्वयं करनी प्रारम्भ कर दी। उबकाई-उल्टी करते-करते उसे निगलते-निगलते लगभग 20-25 मिनट बीत गई। जब मैंने उसे वापस निकालना शुरू किया तो वो नहीं निकली, खींचतान करने से पेट में दर्द सा महसूस हुआ, इतने में गुरू जी आ गये, हाथ में ‘धौति’ का छोर व मेरे चेहरे को देखकर वो वास्तुस्थिति को तुरन्त समझ गये, उन्होने फौरन देशी घी मंगवाया और कटोरे में मुझे पीने के लिए दिया, और ‘धौति’ के हिस्से को अपने हाथ से पकड़ लिया, कुछ ही देर में ‘धौति’ को उन्होने खींच लिया और वह बाहर आ गयी।
उसके बाद गुरू जी ने मुझे समझाया, ”बेटा! ”हठयोग” के 6 साधनों की क्रियाये किसी नट या बाजीगर की कलाओं की तरह हैं ये ‘श्रम साध्य’ ही नहीं ‘समय साध्य’ भी है। योग के सामान्य से दिखने वाले आसन भी व्यक्ति में तेजी से शारीरिक व मानसिक परिवर्तन लाते हैं, अत: इन्हें बिना ‘गुरू’ के नहीं करना चाहिए। अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि उठानी पड सकती है। ये मामूली सी दिखने वाली ‘धौति’ क्रिया ”समय निष्ठ” क्रिया है, यदि ये ‘धौति’ मनुष्य के शरीर में 15-20 मिनट से ज्यादा रह जाये तो ”पाचनतंत्र” इन्हें पचाने में लग जाता है और ये पाचनतंत्र में फंस जाती हैं। घी क्योकि सुपाच्य है और पेट में जाते ही अतिसार (दस्त) की स्थिति उत्पन्न करता है, जब इसे पीया जाता है तो पाचनतंत्र इसे ग्रहण करने के लिए अपना मुंह खोले रखती हैं, उसी समय ‘धौति’ को खींचकर बाहर निकाला जा सकता है।” इतना कहकर गुरू जी चले गये, और मैं भी ‘टॉय़लेट’ की तरफ चल दिया ।
“दोहे” के साथ गुरू वन्दना करते हुए, मैं अपना ब्लॉग समाप्त करता हूं-
जब मैं था गुरू नहीं अब गुरू है मैं नाय,,
प्रेम गली अति सांकरी ता मै दो ना समाय।
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