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जेठ की दोपहर, भरी हुर्इ रोडवेज की बस, सारे यात्री पसीने से नहाये हुए हैं। जितने यात्री बैठे हुए हैं, उतने ही खड़े हैं। गर्मी में ठंडी आहे भरते यात्री, जल्दी से जल्दी गंतव्य पर पहुंचना चाहते हैं।
गाड़ी एक स्टापेज पर रूकी, वहां से एक वृद्धा गाड़ी में चढ़ने का प्रयास करने लगती है।
कन्डक्टर, ड्राइवर पर चिल्लाया-”कहाँ गाड़ी रोक दी तैने, अब इस बुढि़या को बस में चढ़ाने के लिए भी चार आदमी चाहिएगे!”
तभी एक संभ्रांत व्यकित वृ़द्धा को सहारा देकर गाड़ी में बैठा लेता है। बस में चढ़ते ही वृद्धा ने अपने पोपले मुंह व लड़खड़ाते पैराें से सभी को उम्मीद की नजरों से देखा। परन्तु जहां भी उसकी दृष्टि जाती, वहीं नजर इधर-उधर देखने लगती। आखिरकार वृद्धा बस के फर्श पर ही बैठ गयी और झूर्रीदार हाथों से, अपना पसीना पौंछने लगी।
गाड़ी पुन: आगे बढ़ी और फिर दूसरे स्टॉप पर रूक गयी। जितने यात्री उतरते, उतने ही बस में चढ़ जाते। तभी गाड़ी में पश्चिमी-परिधान से सुसज्जित एक नवयुवती दाखिल हुर्इ, तेज परफ्यूम की खुशबू बस में छितरा गर्इ। पता नहीं ये बहार के आगमन का संकेत थी या फिर भारतीय संस्कृति के पतझड़ का? बस में सवार यात्रियों के बूढ़े-जवान तीर उस के शरीर से टकराने लगे।
नवयुवती कन्डक्टर की सीट के बराबर में खड़ी हो गयी और गहरी सांस खिंचती हुर्इ, रूमाल से पसीना पौंछने लगी।
उस मेघ-मृणालिनी को देख कर कन्डक्टर का बूढ़ा मयूर-मन नाचने लगा।
कन्डक्टर तुरन्त सीट से उठ गया, और बोला!
मैडम! आप यहां बैठिए!
परन्तु, अंकल! आप टिकट कैसे बनायेंगे? नवयुवती बोली।
कोर्इ नहीं, मैं बस में घूम कर टिकट बना लूंगा, मुझे आदत है, प्लीज! आप बैठिये और कन्डक्टर, नवयुवती के शरीर को भद्दा-स्पर्श करते हुए खड़ा हो गया।
थैक्स! अंकल! नवयुवती सीट पर बैठ गयी और एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ, फोन की लीड कानों से लगार्इ और बस की खिड़की से बाहर की ओर देखने लगी।
“वृद्धा” बड़े गौर से अपनी गडडे में घुसी आँखों से सब देख रही थी, मानों कह रही हो!
जिन्दगी भी अजब सरायफानी देखी
हर चीज यहां की आनी जानी देखी
जो आके ना जाये वो बुढ़ापा देखा
जो जाके ना आये वो जवानी देखी।
और गाड़ी पुन: आगे बढ़ गयी।
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