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हमारा आन्तरिक जगत शान्त व तनाव रहित रहे और बाहरी जगत के समस्त कार्य कुशलता पूर्वक होते रहे, उसके लिए मन का एकाग्र होना आवश्यक है। एकाग्रता का स्तर जितना अधिक होगा, हमारा मानसिक स्तर भी उतना ही सुदृढ़ होगा। हमारे ऋषि-मनिषियों ने मन को एकाग्र करने की अनेक विधियां बनार्इ। जिसमें “हठयोग” की “त्राटक-साधना” सबसे सरल व सफल है। जिसके करने से कुछ ही समय में लाभ दिखार्इ देने लगते हैं। त्राटक क्या है? त्राटक का शाब्दिक अर्थ है-ताकना या अपलक देखना।
“घेरण्ड-संहिता” में लिखा है-
निमेषोन्मेषकं त्यत्त्का सूक्ष्म लक्ष्यं निरीक्षयेत।
यावद श्रुणि पतन्ति त्राटक प् रोच्यते बुधे:।। (1/53)
”जब तक आंसू न गिरे तब तक पलक मारे बिना किसी सूक्ष्म वस्तु को देखते रहने का नाम त्राटक है।“
“त्राटक-साधना” से जहां मन की चंचलता समाप्त होकर एकाग्रता बढ़ती है, वही नेत्रों की ज्योति भी बढ़ती है। यदि लगातार त्राटक साधना की जाये तो साधक को “सूक्ष्म शक्तियों” के जाग्रत होने की अनुभूति होने लगती है। ‘सम्मोहन’ या ‘हिप्नोटिज्म’ भी त्राटक साधना की “सूक्ष्म-शक्तियों” का ही परिष्कृत रूप है। “योग-साधनाओं” को शंका की द्रष्टि से देखने वालों को केवल एक माह ‘विधिपूर्वक’ त्राटक साधना अवश्य करके देखनी चाहिए।
“त्राटक” तीन प्रकार के होते हैं।
1-आन्तर त्राटक-किसी भी आसन में बैठकर या श्वासन में लेटकर, भूमध्य, ह्रदय की धड़कन या किसी “वस्तु-विशेष” का “मानसिक ध्यान” ”आन्तर-त्राटक” कहलाता है।
2-मध्य त्राटक-किसी 1×1 के सफेद कागज के बीचों बीच अठन्नी या रूपये के आकार का गोला बनाये व उसमेें चटकीला काला रंग भर दें या फिर “शक्ति-चक्र” का चित्र बना कर उसे अपनी आंखों के सामने दिवार पर इस प्रकार टांगे कि गोला आंखों के ठीक सामने पड़े। आंखों व उस गोले के बीच में ढार्इ से तीन फिट की दूरी रखें। साधक! गोले को ‘एकाग्र’ मन से तब तक देखे, जब तक आंखों में पानी न आ जाये। आंखों में पानी आने के बाद उस दिन का अभ्यास बन्द कर दें। उसके बाद नेत्रों को शीतल जल से धोयें। कुछ दिनों तक लगातार अभ्यास करते रहने से, बिन्दु या “शक्ति-चक्र” पर हिलता-डुलता प्रकाश दिखायी देने लगता है। चारों ओर रंग-बिरंगे प्रकाश की किरणें भी दिखार्इ देने लगती है। साधक को केवल बिन्दु या “शक्ति-चक्र” पर पड़ रहे प्रकाश पर ध्यान एकाग्र करना है। जितना प्रकाश गहरा होता जायेगा, साधक की एकाग्रता भी उतनी ही बढ़ती जायेगी।
3-बाह्य त्राटक-इस त्राटक में चन्द्रमा या किसी विशेष तारे का, उदय होते हुए सूर्य का, या किसी पहाड़ की चोटी, या पेड़ की फुनगी का द्रष्टि जमा कर अभ्यास किया जाता है। प्रारम्भ में अभ्यास 2-3 मिनट तक करें, धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाये।
त्राटक में सावधानियां-
-तीनों त्राटकों में “आन्तर त्राटक” श्रेष्ठ एवं सरल है।
-त्राटक के लिए प्रात: का समय श्रेष्ठ है, परन्तु सायं या रात्रि में भी किया जा सकता है।
-त्राटक साधक का भोजन सात्विक होना चाहिए, उसे तेज मिर्च मसालों, अंडे, मांस, मादक पदार्थों आदि से परहेज रखना चाहिए।
-जिसकी ‘नेत्र-ज्योति’ ज्यादा कमजोर हो या जो हमेशा चश्मा लगाते हों। उनको ”आन्तर-त्राटक” का अभ्यास करना चाहिए।
-अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए, नये साधकों को प्रारम्भ में दो से तीन मिनट का अभ्यास करना चाहिए। जैसे-जैसे आंखों की क्षमता बढ़ती है, वैसे-वैसे अभ्यास को बढ़ाया जा सकता है।
-त्राटक करते समय साधक अपने मन ही मन निम्न पंक्तियों का ‘चिंतन’ करते रहे-”मेरे नेत्रों की ज्योति बढ़ रही है और मेरे मन में स्थिरता व एकाग्रता का विकास हो रहा है।”
–”दूर-द्रष्टि“ दोष के लिये ”बाह्य-त्राटक” तथा ”निकट-द्रष्टि” दोष के लिये ”मध्य-त्राटक” लाभकारी होता है, परन्तु नेत्र-दोष से पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए जल नेति, घृत नेति, सूत्र नेति का अभ्यास भी आवश्यक हैै। इनका अभ्यास किसी योग्य गुरू के निर्देशन में ही करना चाहिए।
-‘पित्त-प्रकृति’ वाले व्यक्तियों को ‘सूर्य-त्राटक’ (उगते हुए सूर्य का ध्यान) तथा ‘कफ-प्रकृति’ वाले व्यक्तियों को ‘चंद्र त्राटक’ नहीें करना चाहिए।
पाठकजन! ”त्राटक-साधना” संबंधी किसी भी जिज्ञासा व दिशा निर्देशन के लिए ब्लॉग पर कमेंटस कर सकते हैं और यदि आप “त्राटक-साधना” करते हैं तो अपने अनुभवोें को हम सब से शेयर कर सकते हैं।
गुरु नानक देव साहिब की दो लाईनों के साथ “ब्लॉग” समाप्त करता हूँ-
रे मन डीगी न डोलिए, सीधे मारगि धाउ,
।
[लेखक ने “आचार्य धीरेन्द्र ब्रह्मचारी” के शिष्य “आचार्य प्रेमपाल जी” से योग की शिक्षा ग्रहण की है।]
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